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ट्रेन हादसे की दास्तान

छुट्टी मिल गई,ट्रेन पकड़ा,

फिर लगाया पापा को फोन।

बस और दो दिन "मैने कहा",

मिलने से रोक सकता है कोन।

सिटी बजी ट्रेन की, और

सांस ली राहत की सबने।

पेट में दौड़ रहे थे चूहे ,

पहले थोड़ा खा लूं सोचा मैंने।

सामने बैठे प्यारी बच्ची ने,

मुस्कुराते हुए देखा मुझे ।

हस्ते गाते उसके अपनो ने,

संछिप्त परिचय दिया मुझे।

खाना का निवाला हाथो से,

मुंह तक जाने वाला था।

लेकिन जो था नसीब में,

उसे कौन रोकने वाला था।

जोरदार झटके की गूंज ने,

सबको हिलाकर रख दिया।

विनाश का बुग्गी उल्टा ,

पलटता ही रह गया।

पता चला की हुआ क्या,

मौत ने तो कहर ढा दिया ।

दुबारा झटके की तबाही ने,

सब कुछ खत्म कर दिया।

आंख खुली तो खुद को ,

लाश में तब्दील पाया ।

कहीं पर हाथ,कहीं पर पैर,

अपना मृत शरीर बिखरा पाया।

सामने उस बच्ची की लाश,

और मां को बेबस पाया।

बजता हुआ फोन ,पापा का,

जुदा हाथो से उठा न पाया।

घबडाहट में पापा आए,

बहुत बेचैन था उसका हाल।

कभी अस्पतालों में तलाशे ,

कभी ढूंढे लाशों में ल़ाल।

उसके लिए दर्द शब्दो में,

बयान नही हो पा रहा था।

बेजान हाथो से होकर गुजरे,

मैं बता नही पा रहा था।

ओम शांति ।।।।

प्रेम चंद रविदास

कविता (ट्रेन हादसे की दास्तान)

यह कविता " ट्रेन हादसे की दास्तान " उड़ीसा के बालासोर में हुए रेल दुर्घटना के मृतकों के प्रति श्रद्धांजलि व्यक्त करता है। भगवान उनके दिवंगत आत्मा को शांति दे। <script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-2311119752115696" crossorigin="anonymous"></script>

प्रेम चंद रविदास

6/6/20231 min read