बालपन में एक शिशु की आकांक्षा,

है खेलना कूदना हंसना और गाना।

अबोध बालक की अभिलाषा यही

है अपने माता पिता से प्यार पाना।

डर भय नफरत और अहिंसा ,

किया होता है न उसने कभी जाना ।

माता पिता की छत्रछाया में

खुद को है बहुत सुरक्षित माना।

पर जब से है होस संभाला,

उम्मीद न थी ऐसी मंजर देखा।

नशे में कुर्बान हफ्ते की पूरी कमाई ,

घर चलाने का बीड़ा उठाया एक शराबी।

हफ्ते भर का सरकारी चावल,

महीने भर का चाय पत्ती,

दो दिन का तेल मसला और सब्जी,

बाकी का जिंदगी माड़ भात आलू चटनी।

सोने को अच्छा बिस्तर नही ,

ठंड से बचने को रजाई नही।

छत से टपकता हुआ पानी ,

सड़े बेजान दरवाजा और खिड़की।

बदन में है फटे पुराने कपड़े,

घर में एक फूटी कौड़ी भी नही।

अपने भी कोई घर नही आते ,

समाज में कोई इज्जत नही।

आए दिन रोज लड़ाई झगड़ा,

माता पिता में कोई प्यार नही।

मां रोगी पिता शराबी,

कमाने कोई जाता नही।

कैसी विडंबना है बालक के मन में,

उसके बारे में कोई सोचने वाला नही।

सबकुछ समझता है पर खामोश है।

किसी कोने में पड़ा छिप छिप रोता है।

मन ही मन एक सहारा ढूंढता है।

हर वक्त भगवान का नाम जपता है।

बचपन की अकंछाए मिट जाती है।

खेलना कूदना हंसना गाना बंद हो जाता है।

माता पिता से प्यार पाना तो दूर ,

डर के पिंजरे में कैद हो जाता है।

न तो उनके दोस्त बनते है और,

न ही वो अपनो का दिल जीत पता।

अंदर ही अंदर घुटता हुआ खामोशी ,

के दलदल में फंसता चला जाता है।

देखो जरा उस बालक को

धीरे धीरे अकेला हो जाता है।

कविता(अकेला)

बालपन में एक शिशु की आकांक्षा, है खेलना कूदना हंसना और गाना। अबोध बालक की अभिलाषा यही है अपने माता पिता से प्यार पाना। डर भय नफरत और अहिंसा , किया होता है न उसने कभी जाना । माता पिता की छत्रछाया में खुद को है बहुत सुरक्षित माना। पर जब से है होस संभाला, उम्मीद न थी ऐसी मंजर देखा। नशे में कुर्बान हफ्ते की पूरी कमाई , घर चलाने का बीड़ा उठाया एक शराबी। हफ्ते भर का सरकारी चावल, महीने भर का चाय पत्ती, दो दिन का तेल मसला और सब्जी, बाकी का जिंदगी माड़ भात आलू चटनी। सोने को अच्छा बिस्तर नही , ठंड से बचने को रजाई नही। छत से टपकता हुआ पानी , सड़े बेजान दरवाजा और खिड़की। बदन में है फटे पुराने कपड़े, घर में एक फूटी कौड़ी भी नही। अपने भी कोई घर नही आते , समाज में कोई इज्जत नही। आए दिन रोज लड़ाई झगड़ा, माता पिता में कोई प्यार नही। मां रोगी पिता शराबी, कमाने कोई जाता नही। कैसी विडंबना है बालक के मन में, उसके बारे में कोई सोचने वाला नही। सबकुछ समझता है पर खामोश है। किसी कोने में पड़ा छिप छिप रोता है। मन ही मन एक सहारा ढूंढता है। हर वक्त भगवान का नाम जपता है। बचपन की अकंछाए मिट जाती है। खेलना कूदना हंसना गाना बंद हो जाता है। माता पिता से प्यार पाना तो दूर , डर के पिंजरे में कैद हो जाता है। न तो उनके दोस्त बनते है और, न ही वो अपनो का दिल जीत पता। अंदर ही अंदर घुटता हुआ खामोशी , के दलदल में फंसता चला जाता है। देखो जरा उस बालक को धीरे धीरे अकेला हो जाता है। <script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-2311119752115696" crossorigin="anonymous"></script>

प्रेम चंद रविदास

5/7/20231 min read