चुनाव घोषणा होते ही, <script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-2311119752115696"

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शुरू हो जाता है नामांकन।

फिर उसी दीवारों पर,

सजने लगता है विज्ञापन।

फिर वही जुलूस, वही सभा,

बदल जाते है बोल।

फिर शुरू होता है खोलना,

एक दूसरे के पोल ।

जैसे जैसे नजदीक आता है,

मतदान के दिन।

धीरे धीरे गर्म होता जाता है,

माहोल हर दिन।

उम्मीदवार हाथ जोड़ ,

सिर्फ मुस्कुराता रहता है।

क्या है राजनीति कुछ

उसे समझ नही आता है।

वर्षो के रिश्तों के बंधन,

कुछ ही दिनों में टूट जाते है।

जज्बातों के टकराने से,

हाथो के पुलिंदे छूट जाते है।

खाकर कमाई मां बाप का,

इधर से उधर भटकने वाले।

बनकर गुंडे चंद रुपयों के,

रहते हैं तैयार धमकाने वाले।

पता नहीं की करना किया है,

कुछ बेअकल मतदाताओं को।

सभी जिधर भाग रहे होते है,

उन्ही के पीछे दौड़ रहे होते है।

देख लोगो का उतावलापन,

मन आश्चर्य होता है।

इस बार तो कुछ नया होगा,

ऐसा मालूम पड़ता है।

मतदान के दूसरे ही दिन,

माहोल हो जाता है ठंडा।

जैसे मानो मौसम बिगड़ा था,

आज हो गया है सुहाना।

फिर नतीजों के दिन,

कुछ लोग दिखाते है कमल।

फिर पांच सालो तक,

गरीबों का होता है वही हाल।

मिलता नही कुछ भी ,

सरकारी योजना का लाभ

रेसिडेंट सर्टिफिकेट के बदले

मिलता है सिर्फ इंतजार।

फिर किस बात का है होहल्ला,

फिर किस बात की दादागिरी।

क्यों करे रिश्ता खराप

क्यों हो दोस्ती बरबाद।

क्यों नही चुपचाप जाकर

वोट दे उसी को

जो लगे मन को

सबसे बेहतरीन उम्मीदवार।

Prem Chand Rabidas

कविता (पंचायत वोट)

यह कविता " पंचायत वोट" मतदान के पहले या चुनाव प्रचार के दौरान होने वाले दुर्भाग्यपूर्ण अप्रिय घटनावो की निंदा करता है। आम आदमी किस तरह से पंचायत वोट से प्रभावित होता है । उनको कितना लाभ या हानि होती है इस बात का खण्डन इस कविता के माध्यम से मैंने करने की एक छोटी सी कोशिश की है ।

प्रेम चंद रविदास

6/13/20231 min read