नकाब (कविता)
हर किसी के जीवन में एक समय ऐसा आता है जब उसके आंखो के सामने से झूठ का परदा हट जाता है । उसके सामने वो चेहरा आ खड़ा होता है जिसे वो कभी सपने में भी नही सोचा होता है । कितना टूट जाते है हमलोग उस समय । मेरी यह कविता इसी बात पर आधारित है । <script async src="https://pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js?client=ca-pub-2311119752115696" crossorigin="anonymous"></script>
प्रेम चंद रविदास
8/10/20231 min read


दुनिया तो कामयाबी देखती है
किंतु संघर्ष तो अपने देखते है।
अब तक माना यही की
जख्म मेरे हुआ करते थे।
पर चुपचाप देखती तुम
दर्द तुम भी सहा करते थे।
लेकिन हालात ऐसे आ खड़े हुए
कि चेहरे पर से नकाब उतर गए ।
सच्चाई को सामने आना था
और आज साबित होना था।
जख्म भी मेरे थे और
दर्द भी मैने ही सहा था।
शायद मुझे लगा था कि
तुम मेरे जैसे हो ।
शायद तुम्हे लगा था कि
मैं तुम्हारे जैसा हूं।
शायद यही वजह रहा होगा
कि अच्छा दोस्त बने थे हम।
लेकिन ऐसे हालात आ खड़े हुए
कि चेहरे पर से नकाब उतर गए।
सच्चाई को सामने आना था
और आज साबित होना था।
तुम तुम्हारे जैसे हो
और मैं मेरा जैसा हूं।
लोगो का पहनावा और
रहन सहन से प्रभावित होता था।
सुनकर बड़ी बड़ी बाते
लोगो को सम्मान दिया करता था।
लेकिन हालात ऐसे आ खड़े हुए
कि चेहरे पर से नकाब उतर गए।
सच्चाई को सामने आना था
और आज साबित होना था।
लोग बाहर से दिखते कुछ और है
लेकिन अंदर से होते कुछ और है।
......... प्रेम चंद रविदास............
